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Saturday, September 24, 2011

धम्मपद - अप्रमाद वर्ग - क्या आप अमर होना नही चाहते ( Dhammapada - Apramaadvaggo )

apamada-vaga

Monday, September 19, 2011

धम्मपद यमक वर्ग - अविधा का अधंकार , ज्ञान की रोशनी ( Dhammapada -yamakavago)

धम्मपद यमक वर्ग ( Dhhamapada -yamakavago)

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Tuesday, June 22, 2010

Dhammapada by Acharya Buddharakkhita

Acharya Buddharakkhita was born in Manipur, India. He is the founder and current director of the Maha Bodhi Society in Bangalore. In 1956 he served on the editorial board of the Sixth Buddhist Council in Rangoon. He is the author of numerous books and translations from Pali and also edits and publishes the monthly Buddhist journal Dhamma.

Dhammapada by Acharya Buddharakkhita

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Saturday, May 1, 2010

धम्मपद गाथा ५-बालवग्गो

मूढ

६०.

दीघा जागरतो रत्ति, दीघं सन्तस्स योजनं।

दीघो बालानं संसारो, सद्धम्मं अविजानतं॥

जागने वाले की रात लंबी हो जाती है , थके हुये का योजन लंबा हो जाता है । सद्धर्म को न जानने वाले का जीवन चक्र लंबा हो जाता है ।

६१.

चरञ्‍चे नाधिगच्छेय्य, सेय्यं सदिसमत्तनो।

एकचरियं [एकचरियं (क॰)] दळ्हं कयिरा, नत्थि बाले सहायता॥

यदि शील , समाधि या प्रज्ञा मे विचरण करते हुये अपने से श्रेष्ठ या अपना जैसा सहचर न मिले , तो दृढता के साथ अकेला विचरण करे । मूर्ख च्यक्ति से सहायता नही मिल सकती ।

६२.

पुत्ता मत्थि धनम्मत्थि [पुत्तमत्थि धनमत्थि (क॰)], इति बालो विहञ्‍ञति।

अत्ता हि [अत्तापि (?)] अत्तनो नत्थि, कुतो पुत्ता कुतो धनं॥

“ मेरा पुत्र !”, “मेरा धन ! " – इस मिथ्या चितंन मे ही मूढ व्यक्ति व्याकुल बना रहता है । अरे, जब यह तन मन का अपनापा भी अपना नही है तो कहां “मेरा पुत्र !” “ और कहाँ “मेरा धन !”

६३.

यो बालो मञ्‍ञति बाल्यं, पण्डितो वापि तेन सो।

बालो च पण्डितमानी, स वे ‘‘बालो’’ति वुच्‍चति॥

जो मूढ होकर अपनी मूढता को स्वीकारता है वह सच्चे अर्थ मे ज्ञानी और पंडित  है और जो मूढ होकर अपने आप को पंडित  मानता है , वह मूढ ही कहलाया जाता है ।

६४.

यावजीवम्पि चे बालो, पण्डितं पयिरुपासति।

न सो धम्मं विजानाति, दब्बी सूपरसं यथा॥

चाहे मूढ व्यक्ति पंडित की जीवन भर सेवा मे लगा रहे , वह धर्म को वैसे ही जान नही पाता जैसे कलुछी सूप को ।

६५.

मुहुत्तमपि चे विञ्‍ञू, पण्डितं पयिरुपासति।

खिप्पं धम्मं विजानाति, जिव्हा सूपरसं यथा॥

चाहे विज्ञ पुरुष मूहर्त भर ही पंडित की सेवा मे लगा रहे , वह शीघ्र ही धर्म को वैसे ही जान लेता है जैसे जिह्या सूप को ।

६६.

चरन्ति बाला दुम्मेधा, अमित्तेनेव अत्तना।

करोन्ता पापकं कम्मं, यं होति कटुकप्फलं॥

बाल बुद्धि वाले मूर्ख जन अपने ही शत्रु बन कर वैसे ही आचरण करते हैं और ऐसे ही पापकर्म करते है जिसका फ़ल उनके लिये कडुवा होता है ।

६७.

तं कम्मं कतं साधु, यं कत्वा अनुतप्पति।

यस्स अस्सुमुखो रोदं, विपाकं पटिसेवति॥

वह किया हुआ कर्म  ठीक नही जिसे कर के बाद मे पछ्ताना पडे और जिसके फ़ल को अश्रुमुख होकर रोते हुये भोगना पडे ।

६८.

तञ्‍च कम्मं कतं साधु, यं कत्वा नानुतप्पति।

यस्स पतीतो सुमनो, विपाकं पटिसेवति॥

वह किया हुआ कर्म ठीक होता है जिसे करके पीछे पछ्ताना न पडॆ और जिसके फ़ल को प्रसन्नचित्त होकर मन से भोगा जा सके ।

६९.

मधुवा [मधुं वा (दी॰ नि॰ टीका १)] मञ्‍ञति बालो, याव पापं न पच्‍चति।

यदा च पच्‍चति पापं, बालो [अथ बालो (सी॰ स्या॰) अथ (?)] दुक्खं निगच्छति॥

जब तक पाप का फ़ल नही आता तब तक मूढ व्यक्ति उसे मधु समझ कर मधुर मानता है और जब पाप का फ़ल आता है तो वह व्यक्तो दुखी होता है ।

७०.

मासे मासे कुसग्गेन, बालो भुञ्‍जेय्य भोजनं।

न सो सङ्खातधम्मानं [सङ्खतधम्मानं (सी॰ पी॰ क॰)], कलं अग्घति सोळसिं॥

चाहे मूढ व्यक्ति महीने-२ के अतंराल पर कुश की नोक से भोजन करे , तो भी वह धर्म्वेत्ताओं की कुशल चेतना के सोलवहें भाग की बराबरी नही कर सकता ।

७१.

न हि पापं कतं कम्मं, सज्‍जु खीरंव मुच्‍चति।

डहन्तं बालमन्वेति, भस्मच्छन्‍नोव [भस्माछन्‍नोव (सी॰ पी॰ क॰)] पावको॥

जैसे ताजा दूध नही जमता , उसी तरह किया गया पाप कर्म शीघ्र अपना फ़ल नही लाता । राख से ढकी आग की तरह जलता हुआ वह मूर्ख का पीछा करता है ।

७२.

यावदेव अनत्थाय, ञत्तं [ञातं (?)] बालस्स जायति।

हन्ति बालस्स सुक्‍कंसं, मुद्धमस्स विपातयं॥

मूढ का जितना भी ज्ञान है वह उसके अनिष्ट के लिये होता है । वह उसकी मूर्घा को गिरा कर उसके कुशक कर्मों का नाश कर डालता  है ।

७३.

असन्तं भावनमिच्छेय्य [असन्तं भावमिच्छेय्य (स्या॰), असन्तभावनमिच्छेय्य (क॰)], पुरेक्खारञ्‍च भिक्खुसु।

आवासेसु च इस्सरियं, पूजा परकुलेसु च॥

मूढ व्यक्ति जो नही है उसकी कामना करता है , भिक्षुओं मे अग्रणी बना रहना चाहता है , संघ के आवासों का स्वामित्व चाहता है और पराये कुल मे आदर सत्कार की कामना करता है ।

७४.

ममेव कत मञ्‍ञन्तु, गिहीपब्बजिता उभो।

ममेवातिवसा अस्सु, किच्‍चाकिच्‍चेसु किस्मिचि।

इति बालस्स सङ्कप्पो, इच्छा मानो च वड्ढति॥

गृहस्थ और प्रव्रजित दोनों ही मेरा कहा माने , फ़लत और सही दोनों मे मेरा साथा दे –ऐसा मूढ च्यक्ति का संकल्प होता है । इसमे उसकी इच्छा और अभिमान का संव्द्धर्न होता है ।

७५.

अञ्‍ञा हि लाभूपनिसा, अञ्‍ञा निब्बानगामिनी।

एवमेतं अभिञ्‍ञाय, भिक्खु बुद्धस्स सावको।

सक्‍कारं नाभिनन्देय्य, विवेकमनुब्रूहये॥

लाभ का मार्ग दूसरा है और निर्वाण की ओर ले जाने वाला दूसरा –इस प्रकार इसे भली प्रकार जानकर बुद्ध का श्रावक आदर सत्कार की इच्छा न रखते हुये और विवेक को बढावा दे ।

 

  

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Thursday, April 1, 2010

धम्मपद गाथा १०- दण्डवग्गो

१२९.

सब्बे तसन्ति दण्डस्स, सब्बे भायन्ति मच्‍चुनो।

अत्तानं उपमं कत्वा, न हनेय्य न घातये॥

सभी दंड से डरते हैं । सभी को मृत्यु से डर लगता है । अत: सभी को अपने जैसा समझ कर न किसी की हत्या करे , न हत्या करने के लिये प्रेरित करे ।

१३०.

सब्बे तसन्ति दण्डस्स, सब्बेसं जीवितं पियं।

अत्तानं उपमं कत्वा, न हनेय्य न घातये॥

सभी दंड से डरते हैं । सभी को मृत्यु से डर लगता है । अत: सभी को अपने जैसा समझ कर न तो किसी की हत्या करे या हत्या करने के लिये प्रेरित करे ।

१३१.

सुखकामानि भूतानि, यो दण्डेन विहिंसति।

अत्तनो सुखमेसानो, पेच्‍च सो न लभते सुखं॥

जो सुख चाहने वाले प्राणियों को अपने सुख की चाह से , दंड से विहिंसित करता है ( कष्ट पहुँचाता है ) वह मर कर सुख नही पाता है ।

१३२.

सुखकामानि भूतानि, यो दण्डेन न हिंसति।

अत्तनो सुखमेसानो, पेच्‍च सो लभते सुखं॥

जो सुख चाहने वाले प्राणियों को अपने सुख की चाह से , दंड से विहिंसित नही करता है ( कष्ट नही पहुँचाता है ) वह मर कर सुख  पाता है ।

१३३.

मावोच फरुसं कञ्‍चि, वुत्ता पटिवदेय्यु तं [पटिवदेय्युं तं (क॰)]।

दुक्खा हि सारम्भकथा, पटिदण्डा फुसेय्यु तं [फुसेय्युं तं (क॰)]॥

तुम किसी को कठोर वचन न बोलो , बोलने पर दूसरे भी तुम्हें वैसा ही बोलेगें । क्रोध या विवाद वाली वाणी दु:ख है । उसके बदले मे तुमें दु:ख मिलेगा ।

१३४.

सचे नेरेसि अत्तानं, कंसो उपहतो यथा।

एस पत्तोसि निब्बानं, सारम्भो ते न विज्‍जति॥

यदि तुम अपने को टूटॆ कांस के भाँति नि:शब्द कर लो तो समझो कि तुमने निर्वाण प्राप्त कर लिया है क्योंकि तुममें कोई विवाद और प्रतिवाद नही रह गया है

१३५.

यथा दण्डेन गोपालो, गावो पाजेति गोचरं।

एवं जरा च मच्‍चु च, आयुं पाजेन्ति पाणिनं॥

जैसे ग्वाला लाठी से गायों को चरगाह मे हाँक कर ले जाता है वैसे ही बुढापा और मृत्यु प्राणियों की आयु को हांक कर ले जाते हैं ।

१३६.

अथ पापानि कम्मानि, करं बालो न बुज्झति।

सेहि कम्मेहि दुम्मेधो, अग्गिदड्ढोव तप्पति॥

बाल बुद्धि वाला मूर्ख  व्यक्ति  पापकर्म करते हुये होश नही रखता  । परतुं उन्ही कर्मों वह ऐसे तपता है जैसे आग से जला हो ।

१३७.

यो दण्डेन अदण्डेसु, अप्पदुट्ठेसु दुस्सति।

दसन्‍नमञ्‍ञतरं ठानं, खिप्पमेव निगच्छति॥

जो दंडरहितों या निर्दोषों को दंड से पीडित या अकारण दोष लगाता है , उसे इन दस बातों मे से कोई एक अवशय होती है ।

१३८.

वेदनं फरुसं जानिं, सरीरस्स च भेदनं [सरीरस्स पभेदनं (स्या॰)]।

गरुकं वापि आबाधं, चित्तक्खेपञ्‍च [चित्तक्खेपं व (सी॰ स्या॰ पी॰)] पापुणे॥

त्तीव्र वेदना २- हानि ३. अंग-भंग ४. बडा रोग ५.चित्तविक्षेप ( उन्माद ),

१३९.

राजतो वा उपसग्गं [उपस्सग्गं (सी॰ पी॰)], अब्भक्खानञ्‍च [अब्भक्खानं व (सी॰ पी॰)] दारुणं।

परिक्खयञ्‍च [परिक्खयं व (सी॰ स्या॰ पी॰)] ञातीनं, भोगानञ्‍च [भोगानं व (सी॰ स्या॰ पी॰)] पभङ्गुरं [पभङ्गुनं (क॰)]॥

६. राजदंड ७.कडी निंदा ८. संबधियों का विनाश ९. भोगों का क्षय , अथवा

१४०.

अथ वास्स अगारानि, अग्गि डहति [डय्हति (क॰)] पावको।

कायस्स भेदा दुप्पञ्‍ञो, निरयं सोपपज्‍जति [सो उपपज्‍जति (सी॰ स्या॰)]॥

इसके घर को आग जला डलती है । शरीर छूटने पर वह नरक मे उत्पन्न होता है ।

१४१.

नग्गचरिया न जटा न पङ्का, नानासका थण्डिलसायिका वा।

रजोजल्‍लं उक्‍कुटिकप्पधानं, सोधेन्ति मच्‍चं अवितिण्णकङ्खं॥

जिस मनुष्य के संदेह समाप्त नही हुये हैं उसकी शुद्धि न नंगे रह्ने से, न जटा धारण करने से , न कीचड लपेटने से , न उपवास करने से , न कडी भूमि पर सोने से , न भस्म पोतने से और न उकडूं बैठने से होती है ।

१४२.

अलङ्कतो चेपि समं चरेय्य, सन्तो दन्तो नियतो ब्रह्मचारी।

सब्बेसु भूतेसु निधाय दण्डं, सो ब्राह्मणो सो समणो स भिक्खु॥

वस्त्र , आभूषण आदि से अलंकृत रह्ते हुये भी यदि कोई शांत , दान्त स्थिर ब्रहमचारी  है और सारे प्राणियों के प्रति दंड त्याग क्लर समता का आचरण करता है तो वह ब्राहाम्ण है, श्रर्मण है , भिक्षु है ।

१४३.

हिरीनिसेधो पुरिसो, कोचि लोकस्मि विज्‍जति।

यो निद्दं [निन्दं (सी॰ पी॰) सं॰ नि॰ १.१८] अपबोधेति [अपबोधति (सी॰ स्या॰ पी॰)], अस्सो भद्रो कसामिव॥

संसार मे कोई पुरूष ऐसा भी होता है जो स्वयं ही लज्जा के मारे निष्द्ध कर्म को नही करता । वह निंदा को सह नही सकता है जैसे सधा हुआ घोडा चाबुक को सह नही पाता है ।

१४४.

अस्सो यथा भद्रो कसानिविट्ठो, आतापिनो संवेगिनो भवाथ।

सद्धाय सीलेन च वीरियेन च, समाधिना धम्मविनिच्छयेन च।

सम्पन्‍नविज्‍जाचरणा पतिस्सता, जहिस्सथ [पहस्सथ (सी॰ स्या॰ पी॰)] दुक्खमिदं अनप्पकं॥

चाबुक खाये घोडॆ के समान उधोगशील बनो । श्रद्धा , शील , वीर्य , समाधि और धर्म विनिशचय से युक्त हो विधा और आचरण से संपन्न और स्मृतिवान बन इस महान दु:ख का अंत कर सकोगे ।

१४५.

उदकञ्हि नयन्ति नेत्तिका, उसुकारा नमयन्ति तेजनं।

दारुं नमयन्ति तच्छका, अत्तानं दमयन्ति सुब्बता॥

दण्डवग्गो दसमो निट्ठितो।

पानी ले जाने वाले जिधर चाहते हैं पानी को  उधर ले जाते हैं , बाण बनाने वाले बाण को तपा कर सीधा करते है बढई लकडी को अपने सुविधानुसार सीधा करता है और सदाचार परायण वाले अपना ही दमन करते हैं ।

Monday, March 29, 2010

धम्मपद - बुद्धवग्गो

Commentary With Dhammapada's Buddha Vagga from chintan on Vimeo.

आदर्शवादी पथ से होते हुये बुद्ध हमे उसे जागृत अवस्था मे ले जाते हैं जहाँ मन  सांसारिक तत्वों से ऊपर उठ कर अलौकिक लौ से प्रकाशित होता है । धम्मपद का यही सार है ..बुद्धवग्गा मे यही कहा गया है कि हमारे जीवन की रुप रेखा हमारा मन करता हैअर्थात जैसे विचार वैसा कर्म …जैसा कर्म वैसा योग । जीवन को सुखद बनाने  प्रति बुद्धवग्गा की यह नीतियाँ  मन मे  आशा और आस्था का बोध कराती हैं ।

१७९.

यस्स जितं नावजीयति, जितं यस्स [जितमस्स (सी॰ स्या॰ पी॰), जितं मस्स (क॰)] नो याति कोचि लोके।

तं बुद्धमनन्तगोचरं, अपदं केन पदेन नेस्सथ॥

वह विजेता है , उस पर कभी विजय प्राप्त नही की जा सकती ..उसके प्रभाव क्षेत्र मे कोई दखल नही दे सकता । उसके पास पहुँचने का मर्ग है …बुद्ध ..जो जागृत स्वरुप है ।

१८०.

यस्स जालिनी विसत्तिका, तण्हा नत्थि कुहिञ्‍चि नेतवे।

तं बुद्धमनन्तगोचरं, अपदं केन पदेन नेस्सथ॥

बस बुद्ध के समीप होने के लिये इच्छाओं के जाल तथा माया मोह के भंवर से निकलना होगा ।

१८१.

ये झानपसुता धीरा, नेक्खम्मूपसमे रता।

देवापि तेसं पिहयन्ति, सम्बुद्धानं सतीमतं॥

ईशवर भी जागृतों से प्रतिस्पर्था कर उन पर कृपा करते हैं ..जगृत होकर ध्यानवस्था मे ही पूर्ण स्वतंत्रता और शांति की प्राप्ति संभव है ।

१८२.

किच्छो मनुस्सपटिलाभो, किच्छं मच्‍चान जीवितं।

किच्छं सद्धम्मस्सवनं, किच्छो बुद्धानमुप्पादो॥

मनुष्य योनि मे जन्म लेना कठिन है .. फ़िर मनुष्य बन कर रहना उससे  भी कठिन ..धर्म को समझना और भी कढिन …तथा निर्वाण की प्राप्ति सर्वाधिक कठिन ।

१८३.

सब्बपापस्स अकरणं, कुसलस्स उपसम्पदा [कुसलस्सूपसम्पदा (स्या॰)]।

सचित्तपरियोदपनं [सचित्तपरियोदापनं (?)], एतं बुद्धान सासनं॥

सब बुराइयों से दूर रहो ..अच्छाइयाँ पैदा करने की कोशिश करते रहो …मन मस्तिष्क की शुद्ध्ता रखॊ ।

१८४.

खन्ती परमं तपो तितिक्खा, निब्बानं [निब्बाणं (क॰ सी॰ पी॰)] परमं वदन्ति बुद्धा।

न हि पब्बजितो परूपघाती, न [अयं नकारो सी॰ स्या॰ पी॰ पात्थकेसु न दिस्सति] समणो होति परं विहेठयन्तो॥

धैर्य रखकर सहनशक्ति के साथ जीवन के मूल उद्देशय यानि निर्वाण प्राप्ति की कोशिश करते रहो …किसी के कष्ट का करण न बनो और न हीऒ किसी को कष्ट दो ।

१८५.

अनूपवादो अनूपघातो [अनुपवादो अनुपघातो (स्या॰ क॰)], पातिमोक्खे च संवरो।

मत्तञ्‍ञुता च भत्तस्मिं, पन्तञ्‍च सयनासनं।

अधिचित्ते च आयोगो, एतं बुद्धान सासनं॥

धम्मसंहिता पर आचरण करते हुये किसी के दोषों को न देखॊ ..दूसरों को तकलीफ़ न दो .. काने और सोने मे संयमित रहो और द्यान लगाने की पूरी चेष्टा करो ।

१८६.

कहापणवस्सेन, तित्ति कामेसु विज्‍जति।

अप्पस्सादा दुखा कामा, इति विञ्‍ञाय पण्डितो॥

स्वर्ण भंडार भी तृष्णा नही मिटा सकते …मन की प्यास नही बुझा सकते …वे समझदार है जो जानते हैं कि तूष्णा ..अन्त मे दु:ख का कारण है ।

१८७.

अपि दिब्बेसु कामेसु, रतिं सो नाधिगच्छति।

तण्हक्खयरतो होति, सम्मासम्बुद्धसावको॥

स्वर्ण समान बुअतिक आनन्द से तूप्ति असंभव है …बुद्ध के सच्चे अनुयायी वही हैं जो इच्छाओं को मार कर अनमोल आनंद की प्राप्ति करते हैं ।

१८८.

बहुं वे सरणं यन्ति, पब्बतानि वनानि च।

आरामरुक्खचेत्यानि, मनुस्सा भयतज्‍जिता॥

१८९. नेतं खो सरणं खेमं, नेतं सरणमुत्तमं।

नेतं सरणमागम्म, सब्बदुक्खा पमुच्‍चति॥

भयग्रस्त होकर वनों पहाडॊं मे इपना , धार्मिक स्थलों की शरण लेना व्यर्थ है क्योकि इनमे से कोई भी मन को भय मुक्त नही कर सकता …

१९०.

यो च बुद्धञ्‍च धम्मञ्‍च, सङ्घञ्‍च सरणं गतो।

चत्तारि अरियसच्‍चानि, सम्मप्पञ्‍ञाय पस्सति॥

आयें बुद्ध की शरण मे आयें …धर्मानुसार जीवन जियें और संघ के अनूकूल व्यवहार करें ।

१९१.

दुक्खं दुक्खसमुप्पादं, दुक्खस्स च अतिक्‍कमं।

अरियं चट्ठङ्गिकं मग्गं, दुक्खूपसमगामिनं॥

..आप चार अभिजात सत्यों को ऐसे जानों ..दु:ख, दु:ख का कारण , दु:ख का निवारण और आर्दश अष्टागिंक मार्ग …

१९२.

एतं खो सरणं खेमं, एतं सरणमुत्तमं।

एतं सरणमागम्म, सब्बदुक्खा पमुच्‍चति॥

अष्टांगिक मार्ग द्वारा आप दु:ख – वेदना से मुक्ति पा सकते हैं ..उसकी शरण मे जाना ही उत्तम उपाय है …क्योंकि फ़िर दु:ख वेदना मिट जाते हैं ।

१९३.

दुल्‍लभो पुरिसाजञ्‍ञो, न सो सब्बत्थ जायति।

यत्थ सो जायति धीरो, तं कुलं सुखमेधति॥

बुद्ध के जैसा दूसरा कोई नही है । ऐसे महापुरुष बार-२ जन्म नही लेते । जहाँ ऐसे विवेकी जन्म लेते हैं वह समाज उन्नति करता है ।

१९४.

सुखो बुद्धानमुप्पादो, सुखा सद्धम्मदेसना।

सुखा सङ्घस्स सामग्गी, समग्गानं तपो सुखो॥

बुद्ध का जन्म , धर्म की शिक्षा तथा संघ के अनूकूल आचरण आशीर्वाद के समान है ..

१९५.

पूजारहे पूजयतो, बुद्धे यदि व सावके।

पपञ्‍चसमतिक्‍कन्ते, तिण्णसोकपरिद्दवे॥

इसे तो ईशवर की अनुकंपा समझनी चाहिये ।

१९६.

ते तादिसे पूजयतो, निब्बुते अकुतोभये।

न सक्‍का पुञ्‍ञं सङ्खातुं, इमेत्तमपि केनचि॥

वे श्रेष्ठ हैं जो बुराइयों को त्याग कर , कष्टॊं को पार कर , भय को जीत कर , सम्मानीय को सम्मान देते हैं । बुद्ध एवं उनके अनुनायियों के प्रति आस्था और श्रद्धा रखते हैं ।