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Wednesday, April 22, 2009

धम्मपद- भगवान बुद्ध की देशना

buddha

धम्मपद बौद्ध साहित्य का सर्वोत्कृष्ट लोकप्रिय ग्रंथ है। इसमें बुद्ध भगवान् के नैतिक उपदेशों का संग्रह यमक, अप्पमाद, चित्त आदि 26 वग्गों में वर्गीकृत 423 पालि गाथाओं में किया गया है। त्रिपिटक में इसका स्थान सुतपिटक के पाँचवें विभाग खुद्दकनिकाय के खुद्दकपाठादि 15 उपविभागों में दूसरा है। ग्रंथ की आधी से अधिक गाथाएँ त्रिपिटक के नाना सुत्तों में प्रसंगबद्ध पाई जा चुकी हैं। कुछ गाथाएँ ऐसी भी प्रतीत होती हैं जो मूलत: परंपरा की नहीं थीं, किंतु भारतीय ज्ञान के उस अपार भंडार में से ली गई है जहाँ से वे उपनिषद्, गीता, मनुस्मृति, महाभारत, जैनागम एवं पंचतंत्र आदि कथा कहानियों में भी नाना प्रकार से प्रविष्ट हुई हैं। धम्मपद की रचना उपलब्ध प्रमाणों से ई.पू. 300 व 100 के बीच हो चुकी थी, ऐसा माना गया है।

बौद्ध संघ में इस ग्रंथ का इतना गहरा प्रभाव है कि उसमें पारंगत हुए बिना लंका में किसी भिक्षु को उपसंपदा प्रदान नहीं की जाती। धम्मपद का व्युत्पत्तिगत अर्थ है धर्मविषयक कोई शब्द, पंक्ति या पद्यात्मक वचन। ग्रंथ में स्वयं कहा गया है- अनर्थ पदों से युक्त सहस्रों गाथाओं के भाषाण से ऐसा एकमात्र अर्थपद, गाथापद व धम्मपद अधिक श्रेयकर है जिसे सुनकर उपशांति हो जाए (गा. 100- 102)। बौद्ध साधु प्राय: इसी ग्रंथ की किसी गाथा या उसके अंशमात्र का आधार लेकर अपना प्रवचन आरंभ करते हैं, जिस प्रकार ईसाई पादरी बाईबिल के किसी वचन से। इस कार्य में उन्हें बड़ी सहायता मिलती है धम्मपद की अट्ठकथा नामक टीका से, जिसमें प्रत्यक गाथा के विशद् अर्थ के अतिरिक्त उसके दृष्टांत स्वरूप एक व अनेक कथाएँ दी गई हैं। यह अट्टकथा बुद्धघोष या उनके कालवर्ती किसी अन्य आचार्य द्वारा त्रिपिटक में से ही संगृहीत की गई हैं। इसमें वासवदत्ता और उदयन की कथा भी आई है।

धम्मपद का वर्ण्य विषय

जो ग्रंथ इतना प्राचीन है, जिसकी बौद्ध संप्रदाय में महान् प्रतिष्ठा है, तथा अन्य विद्वानों ने भी जिसकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की है, उसमें सामान्य व्यावहारिक नीति के अतिरिक्त कैसा तत्वचिंतन उपस्थित किया गया है, इसकी स्वभावत: जिज्ञासा होती हैं। ग्रंथ में बौद्धदर्शनसम्मत त्रिशरण, चार आर्यसत्य तथा अष्टांगिक मार्ग का तो उल्लेख है ही (गा. 190-192), किंतु उसमें आत्मा, निर्वाण, पुनर्जन्म, पुण्य-पाप वा स्वर्ग नरक आदि ऐसी बातों पर भी कुछ स्पष्ट विचार पाए जाते हैं जिनके संबंध में स्वयं बौद्ध धर्म के नाना संप्रदायों में मतभेद है। यहाँ स्वयं भगवान् बुद्ध कहते हैं, "मैं अनेक जन्मों रूप संसार में लगातार दौड़ा और उस गृहकारक शरीर के निर्माता को ढूंढता फिरा, क्योंकि यह बार-बार का जन्ममरण दु:खदायी है। रे गृहकारक, अब मैंने तुझे देख लिया, अब तू पुन: घर न बना पावेगा। मैंने तेरी सब कड़ियों को भग्न कर डाला, गृहकूट बिखर गया, चित्त संस्काररहित हो गया और मेरी तृष्णा क्षीण हो गई" (गा. 153-54) यहाँ एक जीव और उसके पुनर्जन्म तथा संस्कार व तृष्णा के विनाश द्वारा पुनर्जन्म से मुक्ति की मान्यता सुस्पष्ट है। मोक्ष का स्वरूप एवं उसे प्राप्त करने की क्रिया का यहाँ इस प्रकार वर्णन है- "जिनके पापों का संचय नहीं रहा या जिनका भोजनमात्र परिग्रहशेष रहा है, तथा आस्रव क्षीण हो गए हैं, उनको वह शून्यात्मक व अनिमित्तक मोक्ष गोचार है (गा. 92-93)। यहाँ पापबंध के कारणों, आस्रवों तथा संचित कर्मों के क्षय से मोक्षप्राप्ति मोक्ष के शून्यात्मक और अनिमित्तक स्वरूप का विधान किया गया है। "कोई पापकर्मी गर्भ से मनुष्य या पशुयोनि में उत्पन्न होते हैं, कोई नरक हो, और कोई सुमति द्वारा स्वर्ग को जाते हैं, तथा जिनके आस्रव नहीं रहा वे परिनिर्वाण को प्राप्त होते हैं। अंतरिक्ष, समुद्र, पर्वतविवर आदि जगत् भर में ऐसा कोई प्रदेश नहीं जहाँ जाकर पापी कर्मफल पाने से छूट सके" (गा. 126-27) "असत्यवादी पापी और असंयमी कषायधारी भिक्षु प्रमादी, परधरसेवी, मिथ्यादृष्टि आदि सब नरकगामी है" (306-09)। यहाँ जीव की गर्भ योनि, नरक, स्वर्ग व मुक्ति इन गतियों तथा कर्मफल की अनिवार्यता की स्वीकृति में संदेह नहीं रहता। ब्राह्मण का स्वरूप एक पूरे वग्ग (गा. 383-423) में बतलाया गया है, जो ऐतिहासिक, धार्मिक, सामाजिक अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण हैं। जाति, गोत्र, जटा तथा मृगचर्म मात्र से एवं भीतर मैला रहकर बाहर मल मलकर स्नान करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता। मैं तो ब्राह्मण उसी को कहूँगा जो कामतृष्णा का त्यागी, अनासक्त, अहिंसक, मन-वचन-काय से पापहीन, रागद्वेष मान से रहित, क्षमाशील, ज्ञानी, ध्यानी, क्षीणस्रव अरहंत हैं। 100 वर्षों तक प्रति मास सहस्रों का दान देते हुए यज्ञ करनेवाले की अपेक्षा एक मूहर्तमात्र आत्मभावना से पूजा करनेवाला श्रेष्ठ है (गा.106)

बौद्धधर्म से विभिन्न संप्रदायों में बँटा, एशिया महाद्वीप के नाना देशों में फैला है। स्वभावत: देशकाल की सुविधानुसार उसके साहित्य ने भी विविध भाषात्मक रूप धारण किए। इस परिस्थिति में बौद्ध धर्म का यह प्रधान ग्रंथ भी एक रूप नहीं रह सका। उसके नाना रूपों में से एक का पता मध्य-एशिया के खुतान नामक प्रदेश में चला। वहाँ सन् 1892 में एक फ्रांसीसी यात्री को खरोष्ट्री लिपि में लिखित धर्म ग्रंथ का कुछ अंश मिला। उसी का दूसरा अंश पेत्रोग्राद पहुँचा। इन दोनों के मिलाकर सेनार्ट साहब ने सन् 1897 में उसका संपादन प्रकाशन किया। यही ग्रंथ अधिक व्यवस्थित रूप में वरुआ और मित्र द्वारा संपादित होकर सन् 1921 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से प्रकाशित हुआ। इन संपादकों के मतानुसार इस धम्मपद की भाषा गांधार प्रदेश की है, और वह अपनी ध्वनियों और भाषात्मक स्वरूप में अशोक की शहबाजगढ़ी व मनसेहरा वाली प्रशस्तियों की भाषा से मेल खाती है। इसलिए इस ग्रंथ का नाम "प्राकृत धम्मपद" रखा गया है। इसमें 12 वग्गा और 251 गाथाएँ हैं।

सेनार्ट द्वारा संपादित संस्कृत महावस्तु के तृतीय परिच्छेद में धम्मपद-सहस्सवग्र्ग (धर्मपदेसु सहस्र वर्ग:) के 24 पद्य उद्धृत किए गए हैं। जबकि पालि त्रिपिटक के सहस्सवग्ग में कुल 16 गाथाएं ही हैं। इससे प्रतीत होता है कि महावस्तु के कर्ता के संमुख एक संस्कृत पद्यात्मक धर्मपद था जिसमें पद्यों की सख्या पालि धम्मपद की अपेक्षा अधिक थी।

चीनी भाषा में धम्मपद के चार अनुवाद मिलते हैं, जिनमें से एक में 500, दूसरे में 700, तीसरे में 900 और चौथे में लगभग 1000 गाथाओं का अनुवाद है और उनकी अट्ठकथाएँ पाई जाती हैं। इनमें से प्रथम तीन का रचनाकाल ईसा की तीसरी शती व चतुर्थ का चौथी व नौंवी शतियों के बीच प्रमाणित होता है। इन चारों के मूल ग्रंथ उनके वर्गों तथा गाथाओं की संख्या एवं क्रम में बहुत कुछ स्वतंत्र रहे होंगे। इन चार में पालि एवं प्राकृत के उक्त दो रूपों को मिलाने से धम्मपद के कम से कम छह संस्करण हमारे संमुख आते हैं, जिनका प्रचार ई.पू. से लेकर 18वीं शती तक लंका, स्याम, बर्मा, मध्य एशिया तथा चीन देशों में हुआ पाया जाता है।

साभार : विकीपीडिया (हिन्दी )

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