Home

Thursday, April 1, 2010

धम्मपद गाथा १०- दण्डवग्गो

१२९.

सब्बे तसन्ति दण्डस्स, सब्बे भायन्ति मच्‍चुनो।

अत्तानं उपमं कत्वा, न हनेय्य न घातये॥

सभी दंड से डरते हैं । सभी को मृत्यु से डर लगता है । अत: सभी को अपने जैसा समझ कर न किसी की हत्या करे , न हत्या करने के लिये प्रेरित करे ।

१३०.

सब्बे तसन्ति दण्डस्स, सब्बेसं जीवितं पियं।

अत्तानं उपमं कत्वा, न हनेय्य न घातये॥

सभी दंड से डरते हैं । सभी को मृत्यु से डर लगता है । अत: सभी को अपने जैसा समझ कर न तो किसी की हत्या करे या हत्या करने के लिये प्रेरित करे ।

१३१.

सुखकामानि भूतानि, यो दण्डेन विहिंसति।

अत्तनो सुखमेसानो, पेच्‍च सो न लभते सुखं॥

जो सुख चाहने वाले प्राणियों को अपने सुख की चाह से , दंड से विहिंसित करता है ( कष्ट पहुँचाता है ) वह मर कर सुख नही पाता है ।

१३२.

सुखकामानि भूतानि, यो दण्डेन न हिंसति।

अत्तनो सुखमेसानो, पेच्‍च सो लभते सुखं॥

जो सुख चाहने वाले प्राणियों को अपने सुख की चाह से , दंड से विहिंसित नही करता है ( कष्ट नही पहुँचाता है ) वह मर कर सुख  पाता है ।

१३३.

मावोच फरुसं कञ्‍चि, वुत्ता पटिवदेय्यु तं [पटिवदेय्युं तं (क॰)]।

दुक्खा हि सारम्भकथा, पटिदण्डा फुसेय्यु तं [फुसेय्युं तं (क॰)]॥

तुम किसी को कठोर वचन न बोलो , बोलने पर दूसरे भी तुम्हें वैसा ही बोलेगें । क्रोध या विवाद वाली वाणी दु:ख है । उसके बदले मे तुमें दु:ख मिलेगा ।

१३४.

सचे नेरेसि अत्तानं, कंसो उपहतो यथा।

एस पत्तोसि निब्बानं, सारम्भो ते न विज्‍जति॥

यदि तुम अपने को टूटॆ कांस के भाँति नि:शब्द कर लो तो समझो कि तुमने निर्वाण प्राप्त कर लिया है क्योंकि तुममें कोई विवाद और प्रतिवाद नही रह गया है

१३५.

यथा दण्डेन गोपालो, गावो पाजेति गोचरं।

एवं जरा च मच्‍चु च, आयुं पाजेन्ति पाणिनं॥

जैसे ग्वाला लाठी से गायों को चरगाह मे हाँक कर ले जाता है वैसे ही बुढापा और मृत्यु प्राणियों की आयु को हांक कर ले जाते हैं ।

१३६.

अथ पापानि कम्मानि, करं बालो न बुज्झति।

सेहि कम्मेहि दुम्मेधो, अग्गिदड्ढोव तप्पति॥

बाल बुद्धि वाला मूर्ख  व्यक्ति  पापकर्म करते हुये होश नही रखता  । परतुं उन्ही कर्मों वह ऐसे तपता है जैसे आग से जला हो ।

१३७.

यो दण्डेन अदण्डेसु, अप्पदुट्ठेसु दुस्सति।

दसन्‍नमञ्‍ञतरं ठानं, खिप्पमेव निगच्छति॥

जो दंडरहितों या निर्दोषों को दंड से पीडित या अकारण दोष लगाता है , उसे इन दस बातों मे से कोई एक अवशय होती है ।

१३८.

वेदनं फरुसं जानिं, सरीरस्स च भेदनं [सरीरस्स पभेदनं (स्या॰)]।

गरुकं वापि आबाधं, चित्तक्खेपञ्‍च [चित्तक्खेपं व (सी॰ स्या॰ पी॰)] पापुणे॥

त्तीव्र वेदना २- हानि ३. अंग-भंग ४. बडा रोग ५.चित्तविक्षेप ( उन्माद ),

१३९.

राजतो वा उपसग्गं [उपस्सग्गं (सी॰ पी॰)], अब्भक्खानञ्‍च [अब्भक्खानं व (सी॰ पी॰)] दारुणं।

परिक्खयञ्‍च [परिक्खयं व (सी॰ स्या॰ पी॰)] ञातीनं, भोगानञ्‍च [भोगानं व (सी॰ स्या॰ पी॰)] पभङ्गुरं [पभङ्गुनं (क॰)]॥

६. राजदंड ७.कडी निंदा ८. संबधियों का विनाश ९. भोगों का क्षय , अथवा

१४०.

अथ वास्स अगारानि, अग्गि डहति [डय्हति (क॰)] पावको।

कायस्स भेदा दुप्पञ्‍ञो, निरयं सोपपज्‍जति [सो उपपज्‍जति (सी॰ स्या॰)]॥

इसके घर को आग जला डलती है । शरीर छूटने पर वह नरक मे उत्पन्न होता है ।

१४१.

नग्गचरिया न जटा न पङ्का, नानासका थण्डिलसायिका वा।

रजोजल्‍लं उक्‍कुटिकप्पधानं, सोधेन्ति मच्‍चं अवितिण्णकङ्खं॥

जिस मनुष्य के संदेह समाप्त नही हुये हैं उसकी शुद्धि न नंगे रह्ने से, न जटा धारण करने से , न कीचड लपेटने से , न उपवास करने से , न कडी भूमि पर सोने से , न भस्म पोतने से और न उकडूं बैठने से होती है ।

१४२.

अलङ्कतो चेपि समं चरेय्य, सन्तो दन्तो नियतो ब्रह्मचारी।

सब्बेसु भूतेसु निधाय दण्डं, सो ब्राह्मणो सो समणो स भिक्खु॥

वस्त्र , आभूषण आदि से अलंकृत रह्ते हुये भी यदि कोई शांत , दान्त स्थिर ब्रहमचारी  है और सारे प्राणियों के प्रति दंड त्याग क्लर समता का आचरण करता है तो वह ब्राहाम्ण है, श्रर्मण है , भिक्षु है ।

१४३.

हिरीनिसेधो पुरिसो, कोचि लोकस्मि विज्‍जति।

यो निद्दं [निन्दं (सी॰ पी॰) सं॰ नि॰ १.१८] अपबोधेति [अपबोधति (सी॰ स्या॰ पी॰)], अस्सो भद्रो कसामिव॥

संसार मे कोई पुरूष ऐसा भी होता है जो स्वयं ही लज्जा के मारे निष्द्ध कर्म को नही करता । वह निंदा को सह नही सकता है जैसे सधा हुआ घोडा चाबुक को सह नही पाता है ।

१४४.

अस्सो यथा भद्रो कसानिविट्ठो, आतापिनो संवेगिनो भवाथ।

सद्धाय सीलेन च वीरियेन च, समाधिना धम्मविनिच्छयेन च।

सम्पन्‍नविज्‍जाचरणा पतिस्सता, जहिस्सथ [पहस्सथ (सी॰ स्या॰ पी॰)] दुक्खमिदं अनप्पकं॥

चाबुक खाये घोडॆ के समान उधोगशील बनो । श्रद्धा , शील , वीर्य , समाधि और धर्म विनिशचय से युक्त हो विधा और आचरण से संपन्न और स्मृतिवान बन इस महान दु:ख का अंत कर सकोगे ।

१४५.

उदकञ्हि नयन्ति नेत्तिका, उसुकारा नमयन्ति तेजनं।

दारुं नमयन्ति तच्छका, अत्तानं दमयन्ति सुब्बता॥

दण्डवग्गो दसमो निट्ठितो।

पानी ले जाने वाले जिधर चाहते हैं पानी को  उधर ले जाते हैं , बाण बनाने वाले बाण को तपा कर सीधा करते है बढई लकडी को अपने सुविधानुसार सीधा करता है और सदाचार परायण वाले अपना ही दमन करते हैं ।

No comments: