Home

Saturday, May 1, 2010

धम्मपद गाथा ५-बालवग्गो

मूढ

६०.

दीघा जागरतो रत्ति, दीघं सन्तस्स योजनं।

दीघो बालानं संसारो, सद्धम्मं अविजानतं॥

जागने वाले की रात लंबी हो जाती है , थके हुये का योजन लंबा हो जाता है । सद्धर्म को न जानने वाले का जीवन चक्र लंबा हो जाता है ।

६१.

चरञ्‍चे नाधिगच्छेय्य, सेय्यं सदिसमत्तनो।

एकचरियं [एकचरियं (क॰)] दळ्हं कयिरा, नत्थि बाले सहायता॥

यदि शील , समाधि या प्रज्ञा मे विचरण करते हुये अपने से श्रेष्ठ या अपना जैसा सहचर न मिले , तो दृढता के साथ अकेला विचरण करे । मूर्ख च्यक्ति से सहायता नही मिल सकती ।

६२.

पुत्ता मत्थि धनम्मत्थि [पुत्तमत्थि धनमत्थि (क॰)], इति बालो विहञ्‍ञति।

अत्ता हि [अत्तापि (?)] अत्तनो नत्थि, कुतो पुत्ता कुतो धनं॥

“ मेरा पुत्र !”, “मेरा धन ! " – इस मिथ्या चितंन मे ही मूढ व्यक्ति व्याकुल बना रहता है । अरे, जब यह तन मन का अपनापा भी अपना नही है तो कहां “मेरा पुत्र !” “ और कहाँ “मेरा धन !”

६३.

यो बालो मञ्‍ञति बाल्यं, पण्डितो वापि तेन सो।

बालो च पण्डितमानी, स वे ‘‘बालो’’ति वुच्‍चति॥

जो मूढ होकर अपनी मूढता को स्वीकारता है वह सच्चे अर्थ मे ज्ञानी और पंडित  है और जो मूढ होकर अपने आप को पंडित  मानता है , वह मूढ ही कहलाया जाता है ।

६४.

यावजीवम्पि चे बालो, पण्डितं पयिरुपासति।

न सो धम्मं विजानाति, दब्बी सूपरसं यथा॥

चाहे मूढ व्यक्ति पंडित की जीवन भर सेवा मे लगा रहे , वह धर्म को वैसे ही जान नही पाता जैसे कलुछी सूप को ।

६५.

मुहुत्तमपि चे विञ्‍ञू, पण्डितं पयिरुपासति।

खिप्पं धम्मं विजानाति, जिव्हा सूपरसं यथा॥

चाहे विज्ञ पुरुष मूहर्त भर ही पंडित की सेवा मे लगा रहे , वह शीघ्र ही धर्म को वैसे ही जान लेता है जैसे जिह्या सूप को ।

६६.

चरन्ति बाला दुम्मेधा, अमित्तेनेव अत्तना।

करोन्ता पापकं कम्मं, यं होति कटुकप्फलं॥

बाल बुद्धि वाले मूर्ख जन अपने ही शत्रु बन कर वैसे ही आचरण करते हैं और ऐसे ही पापकर्म करते है जिसका फ़ल उनके लिये कडुवा होता है ।

६७.

तं कम्मं कतं साधु, यं कत्वा अनुतप्पति।

यस्स अस्सुमुखो रोदं, विपाकं पटिसेवति॥

वह किया हुआ कर्म  ठीक नही जिसे कर के बाद मे पछ्ताना पडे और जिसके फ़ल को अश्रुमुख होकर रोते हुये भोगना पडे ।

६८.

तञ्‍च कम्मं कतं साधु, यं कत्वा नानुतप्पति।

यस्स पतीतो सुमनो, विपाकं पटिसेवति॥

वह किया हुआ कर्म ठीक होता है जिसे करके पीछे पछ्ताना न पडॆ और जिसके फ़ल को प्रसन्नचित्त होकर मन से भोगा जा सके ।

६९.

मधुवा [मधुं वा (दी॰ नि॰ टीका १)] मञ्‍ञति बालो, याव पापं न पच्‍चति।

यदा च पच्‍चति पापं, बालो [अथ बालो (सी॰ स्या॰) अथ (?)] दुक्खं निगच्छति॥

जब तक पाप का फ़ल नही आता तब तक मूढ व्यक्ति उसे मधु समझ कर मधुर मानता है और जब पाप का फ़ल आता है तो वह व्यक्तो दुखी होता है ।

७०.

मासे मासे कुसग्गेन, बालो भुञ्‍जेय्य भोजनं।

न सो सङ्खातधम्मानं [सङ्खतधम्मानं (सी॰ पी॰ क॰)], कलं अग्घति सोळसिं॥

चाहे मूढ व्यक्ति महीने-२ के अतंराल पर कुश की नोक से भोजन करे , तो भी वह धर्म्वेत्ताओं की कुशल चेतना के सोलवहें भाग की बराबरी नही कर सकता ।

७१.

न हि पापं कतं कम्मं, सज्‍जु खीरंव मुच्‍चति।

डहन्तं बालमन्वेति, भस्मच्छन्‍नोव [भस्माछन्‍नोव (सी॰ पी॰ क॰)] पावको॥

जैसे ताजा दूध नही जमता , उसी तरह किया गया पाप कर्म शीघ्र अपना फ़ल नही लाता । राख से ढकी आग की तरह जलता हुआ वह मूर्ख का पीछा करता है ।

७२.

यावदेव अनत्थाय, ञत्तं [ञातं (?)] बालस्स जायति।

हन्ति बालस्स सुक्‍कंसं, मुद्धमस्स विपातयं॥

मूढ का जितना भी ज्ञान है वह उसके अनिष्ट के लिये होता है । वह उसकी मूर्घा को गिरा कर उसके कुशक कर्मों का नाश कर डालता  है ।

७३.

असन्तं भावनमिच्छेय्य [असन्तं भावमिच्छेय्य (स्या॰), असन्तभावनमिच्छेय्य (क॰)], पुरेक्खारञ्‍च भिक्खुसु।

आवासेसु च इस्सरियं, पूजा परकुलेसु च॥

मूढ व्यक्ति जो नही है उसकी कामना करता है , भिक्षुओं मे अग्रणी बना रहना चाहता है , संघ के आवासों का स्वामित्व चाहता है और पराये कुल मे आदर सत्कार की कामना करता है ।

७४.

ममेव कत मञ्‍ञन्तु, गिहीपब्बजिता उभो।

ममेवातिवसा अस्सु, किच्‍चाकिच्‍चेसु किस्मिचि।

इति बालस्स सङ्कप्पो, इच्छा मानो च वड्ढति॥

गृहस्थ और प्रव्रजित दोनों ही मेरा कहा माने , फ़लत और सही दोनों मे मेरा साथा दे –ऐसा मूढ च्यक्ति का संकल्प होता है । इसमे उसकी इच्छा और अभिमान का संव्द्धर्न होता है ।

७५.

अञ्‍ञा हि लाभूपनिसा, अञ्‍ञा निब्बानगामिनी।

एवमेतं अभिञ्‍ञाय, भिक्खु बुद्धस्स सावको।

सक्‍कारं नाभिनन्देय्य, विवेकमनुब्रूहये॥

लाभ का मार्ग दूसरा है और निर्वाण की ओर ले जाने वाला दूसरा –इस प्रकार इसे भली प्रकार जानकर बुद्ध का श्रावक आदर सत्कार की इच्छा न रखते हुये और विवेक को बढावा दे ।

 

  

>

1 comment:

brajesh FAS98 said...

अनमोल ज्ञान